बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

गर्व से कहें – हमें शर्म नहीं आती


गर्व से कहें – हमें शर्म नहीं आती

पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से कौन विचलित नहीं हुआ होगा। 16 अक्तूबर, 2015, दिन शुक्रवार, दिल्ली में अलग-अलग स्थानों से दो और पाँच साल की बच्चियों का अपहरण, उनके साथ सामूहिक बलात्कार। इन खबरों की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि 19/20 अक्तूबर, 2015, दिन सोमवार, स्थान दिल्ली से सटे फ़रीदाबाद में एक परिवार को ज़िंदा जलाने की कोशिश, जिसमें दो नन्हें बच्चों की मृत्यु होती है और हम आनंदित हैं विजयपर्व मनाने में, बुराई पर अच्छाई की विजय का पर्व। 

हर उत्सव, हर त्यौहार समाज में एक नयी ऊर्जा का संचार करता है। नारी शक्ति की पूजा सराहनीय है। देश-भर में दुर्गा पूजा के पंडाल सजे हैं, रामलीलाओं में रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के अट्टहास और उनके पुतले ऊंचे होते जा रहे हैं, बाज़ारों में रौनक बढ़ रही है।  सब कुछ वैसे ही चल रहा है, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।  आनलाइन शॉपिंग, विंडो शॉपिंग, असली ख़रीदारी सब कुछ बदस्तूर जारी है, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।  

आरोप-प्रत्यारोप, राजनीतिक दांव-पेंच, मुआवज़े, अपराधियों की गिरफ्तारियों का दौर जारी है। मुकदमे चलेंगे, शायद सजाएँ भी मिलेंगी, मगर अपराध कम न होंगे।  हत्या लेखक की हो, मुसलमान की हो या बच्चों की हो, क्या जमीन पर कोई सुधार होगा – हमारी सोच में या कानून-व्यवस्था में? नहीं। क्यों?

हर दिशा में एक मौन गहरा रहा है। यह मौन इतना सुखद है कि हम इन मुद्दों की चर्चा के लिए भी तैयार नहीं हैं। आखिर क्यों? ये चार बच्चे क्या उन्हीं दम्पतियों के बच्चे थे? क्या हम, हमारे घर, बच्चों के स्कूल, ट्यूशन सेंटर, मॉल, एप से बुक की हुई टैक्सी सब सुरक्षित हैं? नहीं। क्यों?

प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, गृहमंत्री, पुलिस, व्यवस्था, सब को भूल जाएँ। अपने-अपने स्तर पर संवाद करते रहें।  बाज़ार, सड़क, मॉल, सब जगह चौकस रहें।  मत ढूंढिए कि अपराध आपसी रंजिश से हुआ या जातिय कारणों से।  आगे बढ़ें, स्कूल, कॉलेज, ऑफिस, शहर, गाँव हर जगह से अपराध हटाएँ। शांत रहें। अफवाहों पर ध्यान न दें। मौन को चुनें या मुखर को, अच्छे से इन पर नज़र रखें।  उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, दिल्ली, हरियाणा सब जगह अलग-अलग दलों की सरकारें हैं, जो भी अपनी जिम्मेवारी से भागे, उसे अगले चुनाव में दूर तक खदेड़ आएं।  अन्यथा, गर्व से कहें – हमें शर्म नहीं आती।  हम अपराध-युक्त वातावरण में जीने और मरने को तैयार हैं।         

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

सम्मान मत त्यागें, अनफ्रेंड या अनफालो करते रहें


साराह जोसेफ, के॰ सच्चिदानंदन, नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, शशि देशपांडे, गुरबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख, आत्मजीत सिंह, कुम वीरभद्रप्पा और न जाने कितने साहित्यकारों ने पिछले दिनों अपने पुरस्कार, उपाधियाँ या सम्मान सरकार, साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थानों को वापिस कर दिये।  ट्वीटर पर हैशटैग ट्रैंड कर रहे हैं। मूल घटना गौण हो गई है, मुद्दा यह बन गया है कि पुरस्कार, उपाधियाँ या सम्मान वापिस करना उचित है या अनुचित। 

साहित्यकारों के इन निर्णयों पर प्रश्न उठ रहे हैं – विशेषकर पूर्व में हुई घटनाओं, दंगों और अन्य संदर्भों की पृष्ठभूमि में। तब सम्मान स्वीकार किया तो अब क्यों लौटाया जा रहा है? जब वह घटना हुई तो तब क्यों नहीं लौटाया? इत्यादि।

एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि जावेद अख्तर, निदा फाजली, गुलजार सरीखे साहित्यकारों ने सम्मान क्यों नहीं वापिस किए? खैर, यह उनका निजी मामला होगा।  किसी मुद्दे पर संवेदनशील होने के लिए कैसे किसी को बाध्य किया जा सकता है?

घर वापसी हो या सम्मान वापसी, सभी बुद्धिजीवी अपना निर्णय स्वयं करें।  मुझे तो कोई सम्मान मिला नहीं, लेकिन भविष्य में सम्मान मिलने की संभावना को जीवित रखते हुए सोचता हूँ कि घोषणा कर दूँ कि अगर मुझे कोई सम्मान दिया जाएगा तो मैं उसे पूरे आदर और सम्मान के साथ सहेज कर रखूँगा, कभी वापिस नहीं करूंगा, अपनी वसीयत में भी निश्चित कर जाऊंगा कि कोई भी उस सम्मान को विरोधस्वरूप वापिस न करे।  जरा सोचिए, सरकार या अकादमी इन सम्मान प्रतीकों को कहाँ रखेगी? वैसे भी जो सम्मान आपको दिया गया था, वह दीर्घ अवधि में आपके द्वारा किए गए साहित्यिक-सामाजिक कार्यों के लिए था, न कि किसी घटना पर भूतकाल में आपकी प्रतिक्रिया के लिए। 

विरोध के नए तरीके की मार्केटिंग भी कर ली जाये, सम्मान मत त्यागें, अनफ्रेंड या अनफालो करते रहें। 

शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

अनफ़्रेंड / अनफ़ालो आंदोलन


असहमति या विरोध एक शाश्वत स्थिति है। रावण के दरबार में विभीषण, धृतराष्ट्र के दरबार में विदुर, राजीव गांधी के समय में विश्वनाथ प्रताप सिंह विरोध के ही प्रतीक थे। विरोध का आधार वैचारिक, राजनीतिक, व्यक्तिगत कुछ भी हो सकता है। विरोध या असहमति जीवन के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। विरोध के स्वर कहीं मुखर हो जाते हैं तो कहीं मौन। काँग्रेस में शशि थरूर, भाजपा में शत्रुघ्न सिन्हा भी ऐसे ही स्वर हैं। फेहरिस्त लंबी है। आप सब जानते ही हैं, पुनरावृति से क्या लाभ?

कोई दरबार छोडता है, कोई उपाधि वापिस कर देता है, कोई पार्टी से निकाल दिया जाता है।  यह तय है कि अब आपका रास्ता अलग होगा, संघर्षपूर्ण होगा।  आज़ादी से पहले भी यह सब हुआ है और आज भी हो रहा है। इसे सरकार, संस्था या व्यक्ति से विरोध का एक पुरजोर तरीका माना जाता है।

इन सबसे इतर एक विचार आया है, मन में, कि क्यों न एक अनफ़्रेंड / अनफ़ालो आंदोलन शुरू किया जाये।  आखिर जिस भी संस्था / व्यक्ति से विरोध है, तय मानें कि सोशल मीडिया पर उसकी शक्ति उसके फालौअर्स की संख्या से ही है। जितने ज्यादा प्रशंषक या फालौअर्स, उतनी ज्यादा व्यक्ति / संस्था की ताकत।  

तो आगे बढ़ें और दिखा दें अपनी अंगुलियों की शक्ति और स्मार्ट फोन के एप्स की उपयोगिता। यदि मध्यावधि चुनाव न हों तो मतदान का अधिकार तो आपको पाँच साल में एक बार ही मिलता है, मगर अनफ़्रेंड / अनफ़ालो तो आप कभी भी कर सकते हैं। 

दिल्ली में डेंगी का आतंक जारी है, दिल्ली के सी॰ एम॰ को अनफ़ालो कर दें। खाते में 15 लाख नहीं आए तो देश के पी॰ एम॰ को अनफ़ालो कर दें। ईमानदारी से काम न चल रहा हो तो उसे अनफ़ालो कर दें, बेईमानी से गुस्सा हों तो बेईमानी को अनफालो कर दें।  मेरा यह स्तरहीन लेख न पसंद आए तो मुझे अनफ़ालो कर दें।  बस गाली न दें, किसी की हत्या न करें, चाहे वह ट्वीटर पर जो भी विचार रखे, अपने फ्रिज में कुछ भी रखे। कुछ तो निजी पसंद रहने दें।  इतना भी न थोपें खुद को और अपनी विचारधारा को।  हम सब सहिष्णु हैं और एक दूसरे की आस्था के प्रतीकों का आदर करेंगे।

तो अनफ़्रेंड / अनफ़ालो करते रहें, जब भी आपको लगे कि अब समस्या दूर हो गयी है तो फिर से फालो कर लें या फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दें। यही वास्तविक तटस्थता है। पुराने पुरस्कार और उपाधि को किस से और कैसे वापिस मांगेंगे? इस सबके बीच यह भी याद रखें कि मरणोपरांत पुरस्कार मिल सकता है, मगर कोई पड़ोसी या दोस्त नहीं। दादरी हो या दिल्ली, याद रखें। कलबुर्गी को याद रखें, अखलाक को याद रखें। अपने असहमति और विरोध की आग को याद रखें।