असहमति या विरोध एक शाश्वत स्थिति है। रावण के दरबार
में विभीषण, धृतराष्ट्र के दरबार में विदुर, राजीव गांधी के समय में विश्वनाथ प्रताप सिंह विरोध के ही प्रतीक थे। विरोध
का आधार वैचारिक, राजनीतिक, व्यक्तिगत कुछ भी हो सकता है।
विरोध या असहमति जीवन के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। विरोध के स्वर कहीं मुखर
हो जाते हैं तो कहीं मौन। काँग्रेस में शशि थरूर, भाजपा में शत्रुघ्न सिन्हा भी ऐसे ही स्वर हैं। फेहरिस्त लंबी है। आप सब
जानते ही हैं, पुनरावृति से क्या लाभ?
कोई दरबार छोडता है, कोई उपाधि वापिस कर देता है, कोई पार्टी से निकाल दिया जाता
है। यह तय है कि अब आपका रास्ता अलग
होगा, संघर्षपूर्ण होगा। आज़ादी से पहले भी यह सब हुआ है और
आज भी हो रहा है। इसे सरकार, संस्था या व्यक्ति से विरोध का
एक पुरजोर तरीका माना जाता है।
इन सबसे इतर एक विचार आया है, मन में, कि क्यों न एक
अनफ़्रेंड / अनफ़ालो आंदोलन शुरू किया जाये।
आखिर जिस भी संस्था / व्यक्ति से विरोध है, तय मानें कि सोशल मीडिया पर उसकी शक्ति उसके फालौअर्स की संख्या से ही है। जितने ज्यादा
प्रशंषक या फालौअर्स, उतनी ज्यादा व्यक्ति / संस्था की ताकत।
तो आगे बढ़ें और दिखा दें अपनी अंगुलियों की शक्ति और
स्मार्ट फोन के एप्स की उपयोगिता। यदि मध्यावधि चुनाव न हों तो मतदान का
अधिकार तो आपको पाँच साल में एक बार ही मिलता है, मगर अनफ़्रेंड / अनफ़ालो तो आप
कभी भी कर सकते हैं।
दिल्ली में डेंगी का आतंक जारी है, दिल्ली के सी॰ एम॰ को अनफ़ालो कर दें। खाते में 15 लाख नहीं आए तो देश के
पी॰ एम॰ को अनफ़ालो कर दें। ईमानदारी से काम न चल रहा हो तो उसे अनफ़ालो कर दें, बेईमानी से गुस्सा हों तो बेईमानी को अनफालो कर दें। मेरा यह स्तरहीन लेख न पसंद आए तो मुझे अनफ़ालो कर
दें। बस गाली न दें, किसी की हत्या न करें, चाहे वह ट्वीटर पर जो भी विचार
रखे, अपने फ्रिज में कुछ भी रखे। कुछ तो निजी पसंद रहने
दें। इतना भी न थोपें खुद को और अपनी
विचारधारा को। हम सब सहिष्णु हैं और एक
दूसरे की आस्था के प्रतीकों का आदर करेंगे।
तो अनफ़्रेंड / अनफ़ालो करते रहें, जब भी आपको लगे कि अब समस्या दूर हो गयी है तो फिर से फालो कर लें या
फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दें। यही वास्तविक तटस्थता है। पुराने पुरस्कार और उपाधि को
किस से और कैसे वापिस मांगेंगे? इस सबके बीच यह भी याद रखें कि मरणोपरांत पुरस्कार
मिल सकता है, मगर कोई पड़ोसी या दोस्त नहीं। दादरी हो या दिल्ली, याद रखें। कलबुर्गी को याद रखें, अखलाक को याद रखें। अपने असहमति और विरोध की आग को याद रखें।
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