साराह जोसेफ, के॰ सच्चिदानंदन, नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, शशि देशपांडे, गुरबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख, आत्मजीत सिंह, कुम वीरभद्रप्पा और न जाने कितने साहित्यकारों ने पिछले
दिनों अपने पुरस्कार, उपाधियाँ या सम्मान सरकार, साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थानों को वापिस कर दिये। ट्वीटर पर हैशटैग ट्रैंड कर रहे हैं। मूल घटना गौण
हो गई है, मुद्दा यह बन गया है कि पुरस्कार, उपाधियाँ या सम्मान वापिस करना उचित है या अनुचित।
साहित्यकारों के इन निर्णयों पर प्रश्न उठ रहे हैं – विशेषकर
पूर्व में हुई घटनाओं, दंगों और अन्य संदर्भों की पृष्ठभूमि में। तब सम्मान स्वीकार
किया तो अब क्यों लौटाया जा रहा है? जब वह घटना हुई तो तब क्यों नहीं
लौटाया? इत्यादि।
एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि जावेद अख्तर, निदा फाजली, गुलजार सरीखे साहित्यकारों ने सम्मान क्यों नहीं वापिस
किए? खैर, यह उनका निजी मामला होगा। किसी मुद्दे पर संवेदनशील होने के लिए कैसे किसी
को बाध्य किया जा सकता है?
घर वापसी हो या सम्मान वापसी, सभी बुद्धिजीवी अपना निर्णय स्वयं करें।
मुझे तो कोई सम्मान मिला नहीं, लेकिन भविष्य में सम्मान मिलने की
संभावना को जीवित रखते हुए सोचता हूँ कि घोषणा कर दूँ कि अगर मुझे कोई सम्मान दिया
जाएगा तो मैं उसे पूरे आदर और सम्मान के साथ सहेज कर रखूँगा, कभी वापिस नहीं करूंगा, अपनी वसीयत में भी निश्चित कर जाऊंगा
कि कोई भी उस सम्मान को विरोधस्वरूप वापिस न करे।
जरा सोचिए, सरकार या अकादमी इन सम्मान प्रतीकों को कहाँ रखेगी? वैसे भी जो सम्मान आपको दिया गया था, वह दीर्घ अवधि में आपके द्वारा किए गए साहित्यिक-सामाजिक कार्यों के लिए था, न कि किसी घटना पर भूतकाल में आपकी प्रतिक्रिया के लिए।
विरोध के नए तरीके की मार्केटिंग भी कर ली जाये, सम्मान मत त्यागें, अनफ्रेंड या अनफालो करते रहें।
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